भगवान तिरुपति (वेंकटेश्वर)अवतार!

भगवान तिरुपति ने क्यों अवतार लिया था।

भगवान तिरुपति जी ने क्यों अवतार लिया था, यह एक बहुत ही सुंदर कथा है। इस कथा का शुभारंभ उस समय से हुआ था जब भगवान श्री हरि विष्णु श्री राम के रूप में पृथ्वी पर अपनी लीला कर रहे थे। उस समय एक घटना जो आप सभी लोग जानते होंगे घटी थी जब पंचवटी में रावण माता सीता को हरने के लिए आने वाला था। 

उस समय भगवान श्रीराम ने अग्नि देवता को वास्तविक सीता को समर्पित कर दिया था और माता सीता की एक छाया जो सीता माता के रूप में ही भगवान के साथ रह रही थी, जिसे रावण हर कर ले गया था। जब भगवान ने रावण का वध किया तो उसके पश्चात भगवान ने वास्तविक सीता को वापस करने के लिए अग्नि देव को कहा जिससे छाया सीता अग्नि में समर्पित हो गई और वास्तविक सीता अग्नि से प्रभु श्री राम के पास वापस आ गई। 

जो छाया सीता भगवान के साथ थी, जिसे रावण हर कर ले गया था, उस सीता के लिए अग्निदेव ने भगवान राम से प्रार्थना की वह उससे भी विवाह कर ले, तब भगवान ने कहा की मैं एक पत्नी व्रत ले चुका हूँ, इसलिए इस जीवन में मेरे लिए दूसरा विवाह करना संभव नहीं है। लेकिन अगले जन्म में इनकी यह इच्छा अवश्य पूरी करूंगा। वही छाया सीता आगे चलकर भगवान तिरुपति जी की संगनी पद्मावती के रूप में प्रतिष्ठित हुई।  

भृगु ऋषि द्वारा त्रिदेवों की परीक्षा 

अब हम एक दूसरी घटना की तरह चलते है। यह तब हुई जब एक बार भृगु ऋषि के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ की त्रिदेवो में सर्वश्रेष्ठ कौन से देव है। इसलिए उन्होंने तीनों देवों की परीक्षा लेने का विचार किया, सबसे पहले वह ब्रह्मलोक में गए वहां जाकर उन्होंने ब्रह्मा जी को प्रणाम नहीं किया यह देख कर ब्रह्मा जी को उन पर क्रोध आया।

तब भृगु ऋषि भगवान शंकर के पास गये लेकिन भगवान शंकर अपनी समाधि में लीन थे, भृगु ऋषि ने भगवान शंकर को कुछ अपशब्द कहे परंतु भगवान शंकर ने उनकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया और अपनी समाधि में ही लीन रहे। 

अब अंत में भृगु ऋषि भगवान श्री हरि विष्णु के पास गए और वहां उन्होंने देखा भगवान श्री हरि शेषनाग की शैय्या पर लेटे हुए हैं और उनकी ओर ध्यान नहीं दे रहे तब भृगु ऋषि ने क्रोध में आकर भगवान के वक्षस्थल पर अपने पैर से प्रहार किया, इस पर भगवान श्री हरि ने भृगु ऋषि के चरण पकड़ लिया और उन्हें दबाने लगे। 

चरण दबाते दबाते भगवान भृगु ऋषि से कह रहे थे हे ऋषिवर आपने व्यथा ही मेरे वक्ष स्थल पर प्रहार किया मेरा वक्ष स्थल तो वज्र के समान कठोर है और आपके चरण पुष्प के समान कोमल है कहीं आपके चरण में कोई चोट तो नहीं लगी। भगवान की मृदु वचन सुनकर भृगु ऋषि आत्म विभोर हो गए और भगवान से क्षमा याचना करने लगे।

भगवान की इस लीला को देखकर माता लक्ष्मी अति क्रोधित हुई तब उन्होंने भगवान से कहा कि आप के वक्ष स्थल पर मेरा निवास है, और उसी स्थान पर भृगु ऋषि ने प्रहार किया है, किंतु आपने उन पर कोई क्रोध नहीं किया इसलिए आपने मेरा अपमान किया है अब मैं आप को त्याग कर भूलोक में जा रही हूँ। 

तब माता लक्ष्मी करणी नामक परदेस में जाकर तपस्या करने लगी इससे भगवान श्री हरि को बहुत पीड़ा हुई और वह भी वैकुंठ को त्याग कर तिरुमाला की पहाड़ियों पर निवास करने लगे। भगवान कई दिनों तक बिना कुछ खाए पिए वही भटकते रहे भगवान की इस स्थिति को देखकर भगवान शंकर और ब्रह्मा जी ने विचार किया की वह एक गाय और बछड़े का रूप धारण करके उस देश के राजा के पास जाएगे ताकि वह राजा उन्हें खरीद ले।

उनकी यह योजना सफल रही। राजा ने अपने सेवकों को यह आदेश दिया की उस गाय और बछड़े को नित्य प्रतिदिन जंगल में चराने के लिए ले जाया करें। परन्तु वह गाय प्रतिदिन उस स्थान पर जाकर जहां श्रीहरि विराजमान थे अपना सारा दूध दे दिया करती थी और जब वह गाय वापस राजमहल जाती तो वहां पर दूध नहीं देती थी।

कई दिन तक इसी प्रकार क्रम चलता रहा एक दिन उस सेवक ने देखा कि यह गाय एक स्थान पर जाकर अपना सारा दूध दे देती है तब उसने यह घटना जाकर राजा को बताई राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ राजा ने भी इस घटना को स्वयं देखने का निर्णय किया। जब राजा ने भी अपनी आंखों से इस घटना को वास्तविक रूप से देखा तो उसे उस गाय पर अत्यधिक क्रोध आया और राजा ने उस गाय पर डंडे से प्रहार किया। 

परंतु तभी श्रीहरि वहां प्रकट हो गए और वह डंडा उनके मस्तक पर जा लगा जिससे रक्त बहने लगा यह देखकर वह राजा डर गया और भगवान से क्षमा याचना करने लगा। अपने दयालु स्वभाव के कारण भगवान श्री हरि कुपित नहीं हुए और उन्होंने उस राजा से यह कहा कि अगले जन्म में वह चोल राज्य मे आकाशराज नाम से एक राजा होंगे तब वह उनकी पुत्री से विवाह करके उनका उद्धार करेंगे। भगवान के कथन अनुसार वह अपने अगले जन्म में चोल राज्य का आकाश राज नाम से राजा हुआ।परंतु उसकी कोई संतान नहीं थी। जब उसने अपने गुरु शुकाचार्य से विचार किया तो गुरु ने उसे कहा कि वह यज्ञ के लिए एक स्थान तैयार करें। जब राजा अपनी सोने की कुदाल से उस स्थान को खोद रहा था, अचानक उसे एक संदूक दिखाई दिया जब राजा ने उस संदूक को खोलो तो उसने देखा उसमें कमल के फूल पर एक सुंदर कन्या लेटी हुई है। 

यह कन्या अपने पिछले जन्म में सीता जी का वही रूप थी जिसे रावण हर कर ले गया था और अग्नि देव के कहने पर भगवान ने उससे अपने अगले जन्म में विवाह करने को कहा था। राजा उस कन्या को लेकर अपने महल में गया उस सुंदर कन्या को देख कर राजा की पत्नी बड़ी प्रसन्न हुई और उन्होंने उसका नाम पद्मावती रखा जो वास्तविकता में माता लक्ष्मी का ही एक रूप थी।

धीरे-धीरे वह कन्या बड़ी हो गई तब भगवान श्री हरि भी श्रीनिवास के रूप में वेंकटाचल की पहाड़ियों पर बकुलामाई के आश्रम में निवास करने लगे। एक दिन एक हाथी का पीछा करते हुए श्रीनिवास एक उपवन में चले गए जहां पर उन्होंने पद्मावती को देखा और देखते ही रहे।

भगवान पद्मावती का ध्यान करके उदास रहने लगे तब एक दिन बकुलामाई ने भगवान से पूछा श्रीनिवास तुम उदास क्यों रहते हो तब भगवान ने कहा कि उन्हें पद्मावती से प्रेम हो गया है और उससे विवाह करना चाहते हैं। बकुला माई ने कहा यह क्या कह रहे हो कहां तुम एक कुलहीन गोत्रहीन युवक और कहां वह एक राजकन्या यह कैसे संभव हो सकता है। तब श्रीनिवास ने कहा माई अगर तुम मेरा साथ दो तो यह भी संभव है। 

पद्मावती के प्रति उनके अनुराग को देखकर बकुला माई राजी हो गई। तब भगवान श्री निवास एक ज्योतिष बताने वाली महिला का वेश बनाकर राजा के पास गए, उस स्त्री के बारे में सुनकर पद्मावती भी वहां आ गयी और उसने अपना हाथ उस महिला को दिखाया उसका हाथ देखकर उस महिला ने कहा की तुमसे कुछ दिन पहले एक युवक तुम्हारे उपवन में तुमसे मिला था। 

उसी युवक के साथ तुम्हारा विवाह होना निश्चित है। यह सुनकर राजा आश्चर्यचकित हो गया, तब राजा ने कहा यह कैसे संभव है। वह महिला बोली राजन ऐसा होना ही विधि का विधान है यह निश्चित है कुछ दिन बाद उस युवक की माता तुमसे इस कन्या का हाथ मांगने के लिए आएगी। यह सुनकर राजा चिंतित रहेगा रहने लगा तब राजा ने अपने आचार्य से इसका विचार किया आचार्य ने पद्मावती की कुंडली देखकर कहा कि हे राजा तुम्हारी कन्या का विवाह उसी युवक से होना तय है। 

तुम्हारी कन्या साक्षात लक्ष्मी का ही रूप है, और वह युवक भगवान श्री हरि के समान है, इसलिए इसमें संशय मत करो। कुछ दिन बाद बकुला माई श्रीनिवास की माता बनकर राजा के पास गई और उनके विवाह की बात की, राजा ने इसे विधि का विधान मानकर अपनी सहमति दे दी और लग्न पत्रिका बकुला माई के पास भिजवा दी। उस लग्न पत्रिका को देखकर बकुला माई चिंतित हो गई श्रीनिवास ने बकुला माई को चिंतित देखकर पूछा माता तुम क्यों चिंतित हो तब बकुला माई ने कहा बेटा अभी तक तो केवल विवाह की बात थी, अब इस बात की चिंता है कि इस विवाह का खर्च कहां से आएगा। 

तब भगवान श्री निवास वाराहा स्वामी के पास गए और उनसे सहायता मांगी वाराहा स्वामी ने कहा मेरे पास इतना धन नहीं है, हां अगर आप चाहे तो भगवान शंकर से सहायता मांग सकते हैं। भगवान श्री निवास ने शंकर जी का ध्यान किया शंकर जी ने प्रकट होकर कहा की मैं तो स्वयं एक ही वस्त्र में लिपटा हुआ हिमालय पर निवास करता हूं, मेरे पास धन कहां है, मैं इसमें आपकी कोई सहायता नहीं कर पाऊंगा हां अगर आप चाहे तो ब्रह्मा जी से निवेदन कर सकते हैं।

तब भगवान श्रीनिवास ने ब्रह्मा जी का ध्यान किया ब्रह्मा जी ने प्रकट होकर कहा कि हे प्रभु मैंने तो सृष्टि रचने के बाद सब कुछ इंद्र को दे दिया है, आप उन्हीं से सहायता मांगे तो भगवान श्रीनिवास ने इंद्र का आह्वान किया, इंद्र ने कहा प्रभु सृष्टि का समस्त धन तो कुबेर के अधीन है, वही आपकी सहायता कर सकते हैं। 

तब भगवान ने कुबेर से आग्रह किया कुबेर ने कहा कि वह धन तो दे देंगे परंतु उसे चुकाएगा कौन तब भगवान श्रीनिवास ने कहा कि मैं कलयुग के अंत तक तुम्हारा सारा धन ब्याज सहित वापस कर दूंगा इसी शर्त पर कुबेर ने भगवान श्रीनिवास को उनके विवाह के लिए धन दिया और भगवान का विवाह संपन्न हो गया। 

भगवान श्रीनिवास पद्मावति के साथ वेंकटाचल पर्वत पर निवास करने लगे, जब यह बात माता लक्ष्मी को नारद जी के द्वारा यह पता चला तो उन्हें बहुत दुख हुआ और वह तुरंत भगवान श्री निवास के पास पहुंची।वहां पहुंचकर माता लक्ष्मी और पद्मावती देवी में वाक युद्ध शुरू हो गया वे एक दूसरे को बुरा भला कहने लगी यह देखकर भगवान श्रीनिवास को अत्यंत दुख हुआ और वे तुरंत एक शीला के रूप में परिवर्तित हो गए, भगवान को शीला के रूप में परिवर्तित हुआ देखकर दोनों देवियों को कष्ट हुआ कि भगवान अब किसी के भी नहीं रहे।

उन्हें दुखी देखकर उस शीला से यह आवाज आई! हे देवियो अब मैं तिरुपति मे वेंकटेश्वर स्वामी के रूप में यहीं पर स्थित रहूंगा और अपने सभी भक्तों की मनोकामना पूर्ण करता रहूंगा इसलिए तुम दोनों आपस में कोई युद्ध मत करो यह सुनकर वह दोनों देवियां शांत हो गई, तब माता लक्ष्मी कोल्हापुर में जाकर निवास करने लगी और वहां महालक्ष्मी के रूप में प्रतिष्ठित हो गई तथा देवी पद्मावती भी तिरुनाचूर में शीला रूप में प्रतिष्ठित हो गई तब से आज तक तिरुपति क्षेत्र में तिरुमला पहाड़ी पर भगवान वेंकटेश्वर अपने भक्तों को दर्शन दे रहे हैं उनके भक्तों से जो उनके दर्शन के रूप में जो शुल्क लिया जाता है उसी शुल्क के द्वारा भगवान श्रीनिवास वेंकटेश्वर कुबेर का कर्ज चुका रहे हैं।

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